माँ...........
नहीं समझ आई ये दुनिया मुझे
नहीं समझ आये ये रिश्ते मुझे
नहीं समझ आई ये ज़िन्दगी की
कभी धूप और कभी छाँव,
समझ आई तो सिर्फ एक तू
तेरा प्यार - तेरी ममता और
तेरे आँचल की सुहानी छाँव......
समझ आया तो तेरे हाथों का
वो प्यारा स्पर्श - वो सहलाना,
मुझे हर अच्छा - बुरा समझाना
गुस्से में बस यूँ ही मुझे
न जाने किन किन नामों से बुलाना.....
आज हूँ बहुत दूर तुझसे फिर भी
फोन पर तेरी एक आवाज़ ही
बढ़ा देती मेरा उत्साह - मेरी ताकत,
इतनी मुश्किलों भरी है ज़िन्दगी
फिर भी जीने की एक चाहत......
सच कहूं, बहुत डर जाता हूँ मैं
अगर देख लूं कोई ऐसा सपना कि
तू नहीं है अब यहाँ मेरे साथ,
चली गयी है दूर - बहुत दूर मुझसे
शायद कहीं किसी दूसरी दुनिया में,
कांप जाता हूँ मैं सिर से पैर तक
कांप जाता हूँ सिर्फ इस एक ख़याल भर से ही
और नहीं हो पाता सामान्य तब तक
तब तक जब तक कि नहीं हो जाए तुमसे बात
नहीं हो जाए पक्का यकीन - पक्की तसल्ली कि
तुम हो एकदम ठीक - स्वस्थ और खुश......
तो बस यूँ ही हमेशा खुश दिखना
हमेशा खूब चुस्त - दुरुस्त तंदरुस्त दिखना,
वर्ना मेरी ठन जायेगी ईश्वर से -उसकी सत्ता से
क्योंकि मुझे नहीं मालूम कि
ईश्वर क्या है - कौन है - कैसा है
जब से आँख खुली है तुझे ही देखा है
तुझे ही जाना है - तुझे समझा है बस
तू ही है मेरे लिए ईश्वर - उसका हर रूप
मतलब तू नहीं तो ईश्वर भी नहीं.........
- VISHAAL CHARCHCHIT
आपकी इस उत्कृष्ठ कृति का उल्लेख सोमवार की आज की चर्चा, "क्यों गूगल+ पृष्ठ पर दिखे एक ही रचना कई बार (अ-३ / १९७२, चर्चामंच)" पर भी किया गया है. सूचनार्थ.
जवाब देंहटाएं~ अनूषा
http://charchamanch.blogspot.in/2015/05/blog-post.html
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जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना
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