रविवार, मई 10, 2015

माँ, जहां ख़त्म हो जाता है अल्फाजों का हर दायरा...

माँ,
जहां ख़त्म हो जाता है
अल्फाजों का हर दायरा,
नहीं हो पाते बयाँ
वो सारे जज़्बात जो
महसूस करता है हमारा दिल,
और आती हैं जेहन में
एक साथ वो तमाम बातें....
छाँव कितनी भी घनी हो
नहीं हो सकती सुहानी
माँ के आँचल से ज्यादा....
रिश्ता कितना भी गहरा हो
नहीं हो सकता है कभी
एक माँ के रिश्ते से गहरा...
क्योंकि रिश्ते तो क्या
इस जहां से ही हमारा
परिचय कराती है एक माँ ही,
हर एहसास - हर अलफ़ाज़ का
मतलब भी बताती है एक माँ ही...
इसलिए माँ तुम्हारे बारे में
क्या कह सकते हैं हम
कुछ नहीं - कुछ नहीं - कुछ नहीं !!!
- VISHAAL CHARCHCHIT

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस उत्कृष्ठ कृति का उल्लेख सोमवार की आज की चर्चा, "क्यों गूगल+ पृष्ठ पर दिखे एक ही रचना कई बार (अ-३ / १९७२, चर्चामंच)" पर भी किया गया है. सूचनार्थ.
    ~ अनूषा
    http://charchamanch.blogspot.in/2015/05/blog-post.html

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