ईश्वर ने अगाध प्रेम से
बनायी थी ये धरती,
बनाये थे पेड़-पौधे-पुष्प...
निर्मित किये थे सघन-वन
उसमें भाँति-भाँति के
पशु-पक्षी और कीट-पतंगे...
सब एक-दूसरे के साथ
एक - दूसरे पर निर्भर
सब अपनी सीमा में
सब अपनी मर्यादा में...
और फिर आया मनुष्य
सबसे अधिक चतुर
सबसे अधिक बुद्धिमान...
उसने तोड़े प्रकृति के नियम
उसने बनाये अपने नियम
उसने तय की मर्यादायें...
कि एक राजा होगा
उसका साम्राज्य होगा
गाँव होंगे - नगर होंगे...
उपयोगी पशु-पक्षी पालतू होंगे
अनुपयोगी वन में रहेंगे
वन गाँव - शहर से दूर होंगे...
चलो ये सब भी माना
लाखों वर्षों से मनमानियों
के बाद भी तुम्हें अपना माना...
नहीं किया कभी कोई भयानक विरोध
नहीं किया कभी सीमाओं का उल्लंघन
रह लिये कभी तुम्हारे पिंजरों में
तो कभी तुम्हारे बनाये घरों में...
करते रहे तुम्हारी सेवा
करते रहे तुम्हारी गुलामी
जिये तो तुम्हारे लिये
मरे तो तुम्हारे लिये...
पर अब....? ये क्या?
अब तो तुम उजाड़ने लग गये
हमारे घर ही - हमारे वन ही
लगाने लग गये उनमें आग?
तो अब हम क्या करें?
कहाँ रहें - कहाँ जायें?
कैसे जियें - क्या खायें?
अब तो आना ही पड़ेगा न
तुम्हारी बस्तियों में
तुम्हारे गावों - तुम्हारे शहरों में...
अब तो उजाड़ना ही पड़ेगा न
तुम्हारे खेतों को - बगीचों को
साफ करना ही पड़ेगा तुम्हारे खाद्यान्नों को...
लगाओ जितने बाड़ लगा सकते हो
बिठाओ जितने पहरे बिठा सकते हो
लाओ जितनी मशीनें ला सकते हो...
याद रहे 'चर्चित' तुम यदि हो
अरबों खरबों में तो
हम सब पशु-पक्षी और
कीट पतंगे हैं
शंखों नहीं महा-शंखों में...
यदि हम समाप्त तो
समझो प्रकृति समाप्त
और प्रकृति समाप्त तो
सृष्टि यानी सबकुछ समाप्त...
- विशाल चर्चित
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यदि हम समाप्त तो
जवाब देंहटाएंसमझो प्रकृति समाप्त
और प्रकृति समाप्त तो
सृष्टि यानी सबकुछ समाप्त...,,,,,, बहुत सुंदर रचना ।
बहुत - बहुत शुक्रिया मधु जी
हटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंथैंक्स भाई
हटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाई जी
हटाएंयदि हम समाप्त तो
जवाब देंहटाएंसमझो प्रकृति समाप्त
और प्रकृति समाप्त तो
सृष्टि यानी सबकुछ समाप्त..
यथार्थ उकेरती सशक्त रचना ।
आभार मीना जी
हटाएंप्रणाम सर... क्षमाप्रार्थी हूँ कि अति व्यस्तत्ता के कारण विलंब से आ पाया...
जवाब देंहटाएंआदरणीय विशाल चर्चित जी, नमस्ते!👏! आपने वन्य जीवों की व्यथा को अपनी इस कविता में बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है।
जवाब देंहटाएंआपकी ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी हैं:
अब तो आना ही पड़ेगा न
तुम्हारी बस्तियों में
तुम्हारे गावों - तुम्हारे शहरों में...
अब तो उजाड़ना ही पड़ेगा न
तुम्हारे खेतों को - बगीचों को
साफ करना ही पड़ेगा तुम्हारे खाद्यान्नों को...
साधुवाद!
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सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
आभार सर जी... मैं आपके दिये गये लिंक को अवश्य देखूँगा...।
हटाएंयदि हम समाप्त तो
जवाब देंहटाएंसमझो प्रकृति समाप्त
और प्रकृति समाप्त तो
सृष्टि यानी सबकुछ समाप्त...
वाकई
प्रकृति के प्रति जागरूक कविता
सधु जी आभार।
हटाएंयदि हम समाप्त तो
जवाब देंहटाएंसमझो प्रकृति समाप्त
और प्रकृति समाप्त तो
सृष्टि यानी सबकुछ समाप्त...
वाकई
प्रकृति के प्रति जागरूक कविता
हम सब पशु-पक्षी और
जवाब देंहटाएंकीट पतंगे हैं
शंखों नहीं महा-शंखों में...
सच ! ये तो मनुष्य ने कभी सोचा ही नहीं होगा पर्यावरण का नुकसान करते समय !!!
जी मीना जी, इसीलिये तो मेरे मन में आया कि इस विषय पर कुछ लिखूँ। शुक्रिया कि आपको पसंद आया।
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