आज हास्य-व्यंग्य के जरिये एक ऐसी बात कहने जा रहा, जो शायद ही कोई कहने की हिम्मत रखता हो, वजह है चाटुकारिता की बढ़ती प्रवृति, स्वार्थांधता की होती अति... विषय है तथाकथित शिक्षित महिला लेखिकाओं और कवयित्रियों (अधिकांश लेकिन सब नहीं) की नारी महिमा मंडन की अति और पुरुषों के प्रति आग उगलती कलम... जो कि परिवारिक कलह का अक्सर कारण बनती है... और इसमें आग में घी काम करती हैं तथाकथित महिला गुणी पुरुष मित्रों की अति सराहनायें... किसी का घर टूटता है तो टूटे पर अपनी मित्रता बची रहनी चाहिये बस्स... ध्यान रहे स्त्री और पुरुष दोनों इस सृष्टि का अभिन्न अंग हैं और दोनों की अपनी-अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिकायें हैं और इन्हीं भूमिकाओं के हिसाब से ही ईश्वर ने दोनों के अलग - अलग शारीरिक - मानसिक गुणों से युक्त व्यक्तित्व की रचना की है... न कोई किसी से कम है - न किसी का योगदान ही कम है - न कोई कम महत्त्वपूर्ण ही है...
हाँ, ये अलग बात है कि कलियुग में हो रही हर चीज में मिलावट की तरह अब व्यक्तित्वों में भी मिलावट दिख रही... स्त्रियों में पुरुषत्व और पुरुषों में स्त्रीत्व दिखना आम होता जा रहा, कहीं शारीरिक रूप से तो कहीं मानसिक..... बाकी रही बात अन्याय - अत्याचारों की तो वो सतयुग - त्रेता - द्वापर सभी युगों में रहा है... रावण हो या कंस, ओसामा हो या बगदादी इन सबने अत्याचार या अन्याय करते वक्त स्त्री - पुरुष नहीं देखा... जो बुरा है वो सबके लिये है.... जो अच्छा है वो सबके लिये है... एक बात और कि सभी स्थान - धर्म - जाति - वर्ग में अच्छे लोग भी हैं तो बुरे लोग भी... लेकिन एक झटके में ये कह देना कि सब ऐसे ही हैं... इनका नाश हो जाये... शस्त्र उठा लो... युद्ध छेड़ दो आदि जैसी बातें... जबकि आपको भी पता है आप अपने लेख - अपनी कविता के जरिये भड़ास निकाल रहे बस... वैसे तो आपके इस लेख या कविता से कुछ बदलने वाला नहीं है... हाँ कुछ लोगों को भड़काने के लिये... वाह - वाह पाने के लिये ठीक है पर इसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता... क्योंकि एक एक अच्छा लेख - एक अच्छी कविता तभी कही जायेगी जब वो समाज को जोड़ने की, नव-विकास की प्रेरणा दे न कि तोड़ने की या सर्वनाश की प्रेरणा दे... बहरहाल अब मैं ३ व्यंग्यात्मक दृश्य प्रस्तुत कर रहा जिससे वस्तु-स्थिति पूर्णतया साफ हो जायेगी...
दृश्य एक :
पति से अक्सर झगड़ा होता है, बात - बात पर हाथ उठाते हैं, सीधे मुँह बात नहीं करते, किसी और महिला से चक्कर चल रहा, बाहर पैसे उड़ाते हैं, घर में पैसे नहीं देते, खुद पसरे रहते हैं, पत्नी को ऑर्डर देते रहते हैं ये लाओ - वो बनाओ, मेरा ये नहीं मिल रहा - मेरा वो नहीं मिल रहा.... सास हमेशा रोब झाड़ती है, ताने मारती है, कभी हाथ भी उठाया होगा... ननद भी अपना घर छोड़ के आ जाती है यहाँ अपनी होशियारी दिखाने - हमारे मामले में टाँग अड़ाने... और ये भी उन्हीं लोगों का साथ देते हैं... अरे सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं... मेरे तो भाग्य ही फूट गये जो इस घर में व्याह हुआ... मर्द सब एक जैसे ही होते हैं... स्वार्थी कहीं के... ये सभी बातें घुमड़ती रहती हैं चौबीसों घंटे और होता है इनका मंथन तब निकलती हैं रचनायें...
'नारी तू उठ, शस्त्र सँभाल'... 'नारी तू अंबा है - तू जगदंबा है'... 'हे स्त्रियों अब न सहो तुम पुरुषों का ये दमन'.... 'तोड़ दो सारे बंधन - तोड़ दो सब जंजीरें'... 'अबला नहीं तू सबला है'.... 'तेरे चरणों की धूल भी नहीं पुरुष'.... 'मर्द हैं सारे एक जाति के'... 'भोग-विलास की वस्तु नहीं तू, तोड़ दे उन सब हाथों को'... 'जब - जब नारी ने सीमा लाँघी तब - तब सर्वनाश तुम समझो'... आदि - आदि। निकाल गयी सब भड़ास... मन को अत्यंत सुकून मिला... सबको सुना दी खरी - खोटी... किसी को भी नहीं बख्शा... देखा मेरा टैलेंट... मेरी एक ही रचना से सब हिल गये... चहुँ ओर प्रशंसा हो रही है बस इस घर में ही कद्र नहीं है... अनपढ़ जाहिल कहीं के...
खैर, तो अब कुछ सवाल... जैसा कि आपने अपनी रचना में कहा है... तो क्या अब आप अपने पति से अलग हो जायेंगी? क्या समस्त परिवार का त्याग कर सकेंगी? क्या समस्त पुरुष जाति के खिलाफ तलवार उठा सकेंगी? आपका अपने पिताजी - बाऊ जी - पापा के बारे में क्या खयाल है, जिनको कि बचपन से ही आपने आदर्श माना और उनके लिये आप 'लाड़ली बिटिया रानी'? और अपने भाई के लिये क्या कहेंगी जिसे आप संसार का सबसे सीधा प्राणी मानती हैं? ये सब भी तो शायद पुरुष जाति के ही हैं न? और जिस सास और ननद से आपकी घोर दुश्मनी रही है, जिन्होंने ही आपके पति का दिमाग खराब किया... या वो कलमुही ऑफिस वाली जिसने आपके इनको अपने जाल में फँसाया, उसके बारे में क्या खयाल है आपका... वो भी तो शायद स्त्री जाति की ही है... वो भी तो शायद अम्बा - जगदंबा ही है वो भी रानी लक्ष्मीबाई का ही अवतार है न?
हा हा हा हा... अरे? इत्ता सब तो सोचा ही नहीं... बस जो दिल में आया लिख दिया... तुम 'चर्चित' दिमाग बहुत लगाते हो... और तुम न हमारी रचनाओं को मिल रही प्रशंसा से जलते भी हो... आज पता चला... हा हा हा हा...
दृश्य दो :
वाह बहन आपने क्या रचना लिखी... हृदय गदगद हो गया... सच में... 'यदि स्त्री न होती तो ये सृष्टि न होती'.... 'नारी कल भी भारी थी आज भी भारी है, पुरुष कल भी आभारी था आज भी आभारी है'... 'नारी तुम ही गीता हो नारी तुम ही रामायण'... वाह मैडम वाह... आज से पहले मैंने ऐसी रचना कभी नहीं पढ़ी... आप ही ऐसी बात कहने का साहस कर सकती हैं... आपके साहस के नाम मेरी ये रचना... 'उठो द्रौपदी शस्त्र उठाओ अब कोई कृष्ण न आयेंगे' आदि - आदि।
अब मेरा इन महानुभावों से प्रश्न है कि... सबसे पहले तो आप बतायें कि आप स्त्री हैं या पुरुष? फिर क्या आपको पता है कि द्रौपदी के चीरहरण के समय बचाने आये कृष्ण पुरुष ही थे, वहाँ मौन बैठे भीष्म-द्रोण जैसे महारथी भी पुरुष ही थे? क्या पुरुषों का दायित्व महिलाओं की रक्षा की जगह अब उनका महिमामंडन और उनसे अस्त्र उठवाना ही रह गया है? क्या आप जैसे शूरवीरों का काम चाटुकारिता, तुष्टिकरण, और महिलाओं के पीछे भागना और छिपना ही रह गया है? क्या आप घर में अपने पुरुष दायित्वों का पूर्ण निर्वाह कर रहे? क्या आपकी झूठी प्रशंसा और आपके झोठे प्रोत्साहन से यदि कोई महिला बेघर होती है तो क्या आप उसे सहारा देंगे? नहीं न?! तो फिर ऐसा ढोंग क्यों... ऐसी झूठी कविता क्यों... झूठा प्रोत्साहन क्यों... अच्छे-खासे परिवार को तोड़ना क्यों?
दृश्य तीन :
सुनो जी, कहाँ हो? जल्दी आओ.... किचन में एक छिपकली का बच्चा घूम रहा है... मैं चाय कैसे बनाऊँ?... अरे भाड़ में जाये तुम्हारा ऑफिस... हमें कुछ नहीं पता... जल्दी आओ बस...!!!... हेलो, अजी कहाँ हो आप? अभी-अभी मैंने टीवी पर न्यूज देखी, अर्मेनिया-अजरबैजान कहीं है वहाँ लड़ाई छिड़ी हुई है बम - मिसाइलें चल रही... मेरा तो दिल बहुत घबरा रहा है... आप जल्दी आओ... नहीं मैं कुछ नहीं जानती... बाबा जी ने भी बताया था कि ये २०२० का साल बहुत भारी है... कोरोना अलग फैला हुआ है... लड़ाई अलग छिड़ी हुई है... ऐसा लगता है कि दुनिया खत्म होने वाली है...!!!... अरे आप भी न क्या वो कविता की बात को लेकर बैठ गये... वो तो मैंने ऐसे ही लिख दिया था... बाकी मैं आपको छोड़कर कहाँ जानेवाली हूँ... मेरी तो ख्वाहिश ही यही है कि दुनिया छोड़ूँ तो आपकी बाँहों में.... !!!
.... तो फिर वो रानी लक्ष्मीबाई..... अम्बा - दुर्गा - चंडी... जो लिखा वो सब?.... अरे आप भी न? वो तो कभी - कभी गुस्सा आता है तो लिख देती हूँ... बाकी कोई अपना घर - परिवार बर्बाद करता है क्या?!!
उपसंहार :
हा हा हा हा... तो देखा? ये है भारतीय नारी (हालांकि सब ऐसी नहीं हैं)... लड़ना - झगड़ना एकतरफ... अपना घर - परिवार और पति - परमेश्वर एक तरफ...!!! ये सबक है उन नारद मुनियों के लिये जिनका बस चले तो हर घर में झगड़ा करा दें अपनी रोटी सेंकने के लिये... लेकिन क्या करें इनकी चलती ही नहीं है न?! खैर, इससे सीख लेनी चाहिये कि हे स्त्रियों, आप कुँवारी हों या विवाहित... कुछ भी लिखने से पहले... तलवार चलाने से पहले ये सोच लें कि इससे घायल आपके पिता - भाई - पति - बेटा सभी हो सकते हैं, ये सभी पुरुष हैं और इन सबके बिना शायद ही आप रह सकें... तो फिर झूठी बातें - झूठे दावे या झूठा आक्रोश दिखाती हुई कविता या लेख क्यों लिखना... लिखना ही है तो बुराई के खिलाफ लिखिये... बुराई के लिये जिम्मेदार लोगों के खिलाफ लिखिये... आपको सतानेवाली आप पर अन्याय करनेवाली सास - ननद के खिलाफ लिखिये भले ही वो भी नारी ही हैं।
इसीतरह हे कोमल हृदय पुरुषों, आप बजाय दूसरों की स्त्रियों को भड़काने के पहले ये देखें कि कहीं जाने -अनजाने आप अपनी माँ - पत्नी या बहन पर अन्याय - अत्याचार तो नहीं कर रहे... ध्यान रखिये कि लेट कर टीवी देखते हुए... फेसबुक - व्हाट्सप चलाते हुए जब आप बात - बात पर ऑर्डर चलाते हैं, अपने चाय का कप तक नहीं उठाते, अपना बिस्तर तक नहीं उठाते... हर चीज - हर काम के लिये पत्नी या बहन को कहते हैं... यदि आप इनसे सीधे मुँह बात नहीं करते... या बहुत कम बात करते हैं... कुछ पूछने पर जवाब नहीं देते... अपने परिवार को समय नहीं देते तो आपकी महान बातें - महान दावे सब खोखले हैं - झूठे हैं... आपके लेख - आपकी कविता पर क्षणिक वाह-वाही तो मिल सकती है पर ऐसी रचनायें कालजयी नहीं हो सकतीं... क्योंकि ये विश्वास उत्पन्न नहीं करतीं... हृदय में - मानस पटल पर अंकित नहीं होतीं... सूर - तुलसी - कबीर - मीरा - रहीम आदि की कृतियाँ ऐसे ही अमर नहीं हुईं... उन्होंने अपनी रचनाओं में सिर्फ कोरी लच्छेदार लोकलुभावन बातें ही नहीं कीं बल्कि उन्होंने वैसा ही जीवन जिया है... अपनी कृतियों को जिया है...
खैर, लिख तो दिया है अब देखते हैं कितनों को समझ में आती है...
- विशाल चर्चित
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