सर्द मौसम है, गर्मागर्म पकौड़ों अदरक वाली चाय का ये वक्त है, पर नदारद हैं खनकती चूडियों वाले वे हाथ, शाम नहीं ये जहर की पुड़िया है, मौत यूं आहिस्ता-आहिस्ता क्या कहें, बहुत बढ़िया है...
कि इन्सान अपनी ही फितरत न बदले... मौसम न बदले तो तासीर बदले, हवाओं का रुख और खुशबू तो बदले... जीना न बदले मरना न बदले मगर बीच की जंग का मंजर तो बदले... रिश्ते न बदलें जमाना न बद्ले मगर नकली दिखना दिखाना तो बदले... नेता न बदलें सियासत न बदले जनता का बातों में आना तो बदले... कहते हैं चर्चित नये साल पर ये कि यारों का यूं मुस्कुराना न बदले...