शनिवार, जून 17, 2017

मानो तो मामूली सिक्का हो जाता है हजारों का...

जिधर देखो उधरहै दुख ही दुख,
जिसे देखो वही
है दुखी-है निराश,
क्योंकि उन्हें
नहीं आता सुखी होना,
उन्हें लगता है कि
गाड़ी-बंगला और
करोड़ों की कमाई को ही
कहते हैं सुखी होना...

लेकिन यदि ऐसा होता तो
नहीं दिखती मुस्कान कभी
किसी भी गरीब के चेहरे पर,
नहीं दिखते आंसू कभी
किसी अमीर के चेहरे पर...

लोग दुखी हैं क्योंकि
उनको चाहिये सब कुछ
अपनी ही पसंद का
अपने ही हिसाब से,
उससे कम पर तो
नहीं होना है कभी खुश
नहीं होना है कभी संतुष्ट...

सब कुछ छीन लेना है
सब कुछ झपट लेना है
सब कुछ हथिया लेना है,
ईश्वर-खुदा-गॉड या ऊपरवाला
तो जैसे है सिर्फ
आदेश सुनने के लिये ही,
ये आदेश होता है
पूजा के रूप में या
इबादत के रूप में
प्रार्थना के रूप में...

यदि हो गया अपने मन का
तो खुश कि देखा?
मैंने कर दिखाया न?!
मैं ये - मैं वो...
और जब नहीं होता
अपने मन का तब
शुरू होता है रोना
दूसरों की गलती पर
अपने भाग्य पर
या फिर ईश्वर पर...

लो सुनो एक उपाय
करके देखो एक प्रयोग
सुखी जीवन के लिये
शांतिमय हर पल के लिये
हमेशा मुस्कुराने के लिये...

सच में स्वीकार लो
ईश्वर की सत्ता को,
सीख लो स्वीकारना
अपनी हार को,
मान लो कि
तुम्हें कुछ नहीं है पता,
मान लो कि
नहीं है कुछ भी
तुम्हारे हाथ में और
छोड़ दो तर्क करना...

फिर करो महसूस
ईश्वर को-प्रकृति को
अपने भाग्य को
सुख को-सुकून को...

सार ये है कि -
सुख-दुःख है सब झूठी बातें
सारा खेल विचारों का,
मानो तो मामूली सिक्का
हो जाता है हजारों का...

- विशाल चर्चित

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-06-2016) को गला-काट प्रतियोगिता, प्रतियोगी बस एक | चर्चा अंक-2646 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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