सोमवार, जनवरी 12, 2015

उठो - खड़े होओ - आगे बढ़ो

हां, बिलकुल सही है
चोट लग जाने के बाद
सोच समझकर चलना,
दूध से जल जाने के बाद
छाछ भी फूंक - फूंक कर पीना...
लेकिन वो रास्ता ही छोड़ देना
जहां लगी हो चोट?
पीना ही छोड़ देना
दूध ही नहीं छाछ भी?
फिर कैसे जियोगे भला
सबकुछ छोड़ कर जिन्दगी?
चोट लगनी है तो 
लग जायेगी कहीं भी - कैसे भी,
जलना है तो जल जाओगे
कहीं भी - कभी भी - कैसे भी,
चाहे जितने रहो सतर्क
चाहे जितने रहो चौकन्ने...
तो क्या बहुत ज्यादा सोचना
क्या बहुत ज्यादा विचारना
क्या बहुत ज्यादा पछताना
क्या बहुत ज्यादा दुखी होना
क्या बहुत ज्यादा उदास होना...
बड़े से बड़े हादसों के बावजूद
जिन्दगी की रफ्तार
हो सकता है कि थोड़ी धीमी हो जाये
जिन्दगी खुद थोड़ी लड़खड़ा जाये
पर रुकती कभी नहीं,
क्योंकि अगर रुक गई तो फिर
जिन्दगी जिन्दगी नहीं रहती...
इसलिये उठो - 
खड़े होओ - आगे बढ़ो
एक सुनहरा कल बेताब है
तमाम खुशियां - तमाम सुकून
तमाम जश्न और तमाम मुस्कुराहटें,
तुम्हारे लिये साथ लिये...

- विशाल चर्चित

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